ठा० गंगाभक्त सिंह भक्त
भोर के स्वर (समवेत काव्य–संकलन) में रचनाएँ प्रकाशित
माँ! वीणा के तार सजा दे।
इस भारत-भू के कण-कण को
चन्दन सा महका दे ।
फैली जग में बड़ी निराशा,
टूट रही जन-जन की आशा।
तू आशा का दीप जलाकर
ज्योति-शिखा लहरा दे ।
माँ !............ ........।।
स्वार्थ सलिल का स्त्रोत सुखाकर,
मानवता को कण्ठ लगाकर।
भटकी तरुणाई को माँ तू
सच्ची राह बता दे ।
माँ !............ ........।।
कोई जग में रहे न भूखा,
दूर रहे, अति-वर्षा, सूखा
खेतों में फसलों के मिस
तू कंचन सा बरसा दे ।
माँ !............ ........।।
स्वस्थ काव्यों की रचना हो,
प्रगतिमयी हर संरचना हो
काव्यमंच पर सत्यम्-शिवम्
सुन्दरम को बिखरा दे ।
माँ !............ ........।।
क्लांत मनुजता को गति दे दे,
शंखनाद कर क्रान्ति मचा दे
युग-युग के इस थके विहग के
पंखों को सहला दे ।
माँ !............ ........।।
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-ठा॰ गंगाभक्त सिंह भक्त
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[1]
कारगर शिकारी की आँख के इशारे हैं ।[5]
पाण्डवों की जिंन्दगी संकट में है।
कृष्ण आओ द्रोपदी संकट में है ।।
किससे दिल की बात कहने जाएँ हम।
जो भी मिलता है वही संकट में है।।
आगे आगे चल रहे हैं हादसे।
घर से निकला यात्री संकट में है।।
कौन इस युग में हरेगा दुःख मेरे।
खुद ही इस युग का हरी संकट में है।।
झूठ के सिर पर मुकुट है विक्रमी।
भक्त सच्चा आदमी संकट में है।।
***
[6]
सौ बहाने हैं मुस्कारने के।
लाख अन्दाज़ ग़म छुपाने के।।
मेरी बर्बादियों का रंज न कर।
दिन हैं जश्न-ए-तरब मनाने के।।
बिजलियों की चमक पै शैदा हुए।
जो मुहाफ़िज थे आशियाने के।।
फिर कोई अहदे मोतबर यारो।
हौसले हैं फरेब खाने के।।
पहले तुम मेहरबान होके मिले।
फिर मसायब मिले ज़माने के।।
ये तगाफुल ये खुद फरामोशी।
सब जतन हैं तुझे भुलाने के।।
आज के लोग भी खिलौने हैं ।
चन्द कौड़ी के, चन्द आने के।।
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[7]
मैं हूँ पहरेदार खुदा की बस्ती का।
यानी फर्ज गुजार खुदा की बस्ती का।।
मुझको आकर सारे भेद बताता है।
एक-एक चोर चकार खुदा की बस्ती का।।
सब कठिनाई हल होती है डंडे से।
डंडा है ग़मखार खुदा की बस्ती का।।
जिस चिड़िया के बच्चे को देखा, निकला।
पक्का रिश्तेदार खुदा की बस्ती का।।
खास किसी इंसां में न देखो भक्त मुझे।
मैं हूँ एक किरदार खुदा की बस्ती का।।
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[8]
पास आकर भी दूर हैं कितने।
मिलने से मजबूर हैं कितने।।
दारो रसन तक इनकी शोहरत।
दीवाने मशहूर हैं कितने।।
ये कैसा पथराव हुआ है।
आइना खाने चूर हैं कितने।।
उन आँखों का फैज करम है।
पूछो मत मखमूर हैं कितने।।
जीने का दस्तूर नहीं है।
मरने के दस्तूर हैं कितने।।
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[9]
रैन निराशा आए कौन।
सोए भाग जगाए कौन।।
प्रीति की रीति ही ऐसी है।
इस दिल को समझाए कौन।।
गहरे सागर की तह से।
सच्चे मोती लाए कौन।।
अब किस का विश्वास करें।
झूठी कसमें खाए कौन।।
आने वाला कोई नहीं।
खिड़की द्वार सजाए कौन।।
दीपक राग अलापें भक्त।
लेकिन मेघा गाए कौन।।
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-ठा॰ गंगाभक्त सिंह भक्त
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