Wednesday, June 15, 2005

परिचय


ठा० गंगाभक्त सिंह भक्त


[1924 - 2004]

कविता और यथार्थ के बीच व्यावहारिक तालमेल में विश्वास रखने वाले, अपनी बात सरल और सहज भाषा में प्रभावशाली ढँग से कहने वाले,आम आदमी के सच्चे मित्र, गरीबों के हितैषी और राजनीति में भ्रष्टाचार से चिढ़ने वाले ठा॰ गंगा भक्त सिंह भक्त का जन्म 1924 में उत्तर-प्रदेश के फर्रुखाबाद जिले में गंगा जी के किनारे स्थित गाँव में हुआ। उर्दू और हिन्दी में समान गति में सृजन करने वाले ठा॰गंगाभक्त सिंह 'भक्त' (दद्दू ) के नाम से लोक विख्यात थे। दद्दू पारम्परिक सामाजिक एवं राजनैतिक व्यवस्था से क्षुब्ध दीन-दुखियों, पीड़ितों एंव शोषितों की सेवा में संलग्न रहकर उनके अभाव, पीड़ा, संत्रास की अनुभूति को कविता के रूप में ढालकर कवि-गोष्ठियों, कवि-सम्मेलनों एवं मुशायरों के माध्यम से अपनी भावनाएँ जीवन पर्यन्त व्यक्त करते रहे। अनेक पत्र–पत्रिकाओं में आपकी रचनाओं का प्रकाशन हुआ हैं। कन्नोजी बोली के मौलिक लोकगीतों में आपको विशेष महारत हासिल थी।


प्रकाशित कृतियाँ—

संवेदना के घुँघरू (काव्य-संग्रह) 1994

भोर के स्वर (समवेत काव्य–संकलन) में रचनाएँ प्रकाशित

वाणी वंदना

माँ! वीणा के तार सजा दे।
इस भारत-भू के कण-कण को
चन्दन सा महका दे ।


फैली जग में बड़ी निराशा,
टूट रही जन-जन की आशा।
तू आशा का दीप जलाकर
ज्योति-शिखा लहरा दे ।
माँ !............ ........।।


स्वार्थ सलिल का स्त्रोत सुखाकर,
मानवता को कण्ठ लगाकर।
भटकी तरुणाई को माँ तू
सच्ची राह बता दे ।
माँ !............ ........।।


कोई जग में रहे न भूखा,
दूर रहे, अति-वर्षा, सूखा
खेतों में फसलों के मिस
तू कंचन सा बरसा दे ।
माँ !............ ........।।


स्वस्थ काव्यों की रचना हो,
प्रगतिमयी हर संरचना हो
काव्यमंच पर सत्यम्-शिवम्
सुन्दरम को बिखरा दे ।
माँ !............ ........।।


क्लांत मनुजता को गति दे दे,
शंखनाद कर क्रान्ति मचा दे
युग-युग के इस थके विहग के
पंखों को सहला दे ।
माँ !............ ........।।
***

-ठा॰ गंगाभक्त सिंह भक्त

ggggggggggggggggggggg

छन्द

[1]

ठोकर लगी जो कल रात मेरे पाँव में तो
मुझको सँभालने उतर आयी चाँदनी
उँगली पकड़ कर दिखाने लगी राह मुझे
पीछे-पीछे मैं चला औ आगे चली चाँदनी
बीते हुए वक्त में खिसक गया मन, तब
मेरे लिए हो गई अनारकली चाँदनी
और तनहाई ने कचोटा जब भक्त को, तो
गीत गुन–गुन के सुनाने लगी चाँदनी
***
[2]
राजनीति दरिया में डुबकी लगाने गयी
लौट के न आयी कल रात वाली चाँदनी
रंग–बदरंग अंग–अंग में उमंग, ये तो
लगती है और किसी लोक वाली चाँदनी
झूठ औ फरेब का सिंगार किये डोलती है
हो गयी भ्रमित 'भक्त' भोली–भाली चाँदनी
मान ले तू कहना औ आ जा घर चुपचाप
तुझसे न होगी करतूत काली, चाँदनी।।
***

दोहे
ggggggggggggg


सोना मिट्टी बन गया, मिट्टी बन गई माल।
फैलाया किस दुष्ट ने, ऐसा मायाजाल।।
***
आज़ादी के बाद कुछ, ऐसा हुआ प्रयोग।
राजनीति में आ गए, ऐसे–वैसे लोग।।
***
कविता के संसार में, होने लगा प्रपंच।
कवि–सम्मेलन हो गए, हैं भाँड़ों के मंच।।
***
हो सरकारी काम यदि, तो न दिखाओ जोश।
नौ दिन तक चलते रहो, चलो अढ़ाई कोस।।
***
अधिकारी कर्त्तव्य के प्रति होता अनजान।
उसके, आँखों की जगह, होते हैं बस कान।।
***
-ठा॰ गंगाभक्त सिंह भक्त
ggggggggggggggggggggggg

गज़ल़ें

[1]

कारगर शिकारी की आँख के इशारे हैं । 
एक तीर से उसने कितने लोगा मारे हैं।। 

 ढूँढ़ते हो क्या इनमें, आज तक इन आँखों ने।
 ख़्वाव ही सजाए हैं ख़्वाब ही सँवारे हैं।। 

 हिन्दू है न मुस्लिम है, सिक्ख है न ईसाई। 
इक पवित्र दरिया है, जिसके चार धारे हैं।। 

 लोग तो बदी करके भी गुजार लेते हैं।
इस जह़ान में हम तो नेकियों के मारे हैं।। 

 बेहयाई का रोना किसके आगे रोया जाए। 
इस हमाम में ऐ भक्त बेलिबास सारे हैं।। 

***


[2] 

तनहाई में बैठ के रो लो। 
सबसे मन का भेद न खोलो।। 

आँखें सच-सच बोल रही हैं। 
दर्पन से तुम झूठ न बोलो।। 

सूरज सर पर आ पहुँचा है। 
अब तो जागो आँखें खोलो।।  

रहते हो क्यों चुप चुप-चुप चुप। 
बोलो बोलो कुछ तो बोलो।। 

 या तो किसी को अपना बना लो। 
या फिर भक्त किसी के हो लो।। 

***
[3] 

पने चारों ओर हैं फैले अन्धे गूँगे। 
तने कभी देखे न सुने थे अन्धे बहरे गूँगे।।

 लिखने वाला कितने दुख से ये इतिहास लिखेगा। 
हम हर नाजुक समय पे हो गए अन्धे बहरे गूँगे।।

 हमसे बढ़कर कौन भला है अन्धा बहरा गूँगा। 
हमने सर आँखो पे बिठाए अन्धे बहरे गूँगे।। 

 कैसे कैसे हिम्मत वाले निकले सीना ताने। 
एक ही पल में हो गए कैसे अन्धे बहरे गूँगे।। 

 भक्त ये किन लोगों से तुमने बाँधी हैं आशाएँ।
देखेंगे कब खैर के सपने अन्धे बहरे गूँगे।। 

*** 

[4]

वाणी में अमृत रस घोलो। 
अच्छा सोचो अच्छा बोलो।। 

कविता की सरिता के तट पर। 
मन की मैली चादर धोलो।।  

पिछले पहर में हर आहट पर। 
घर के दरवाजे मत खोलो।। 

 जीवन है इक रात अँधेरी। 
मेरी मानो थोड़ा सोलो।।

 भक्त की कोमल निर्मल बातें।
बातों को फूलों से तौलो।। 

 और भी घर हैं इस बस्ती में। 
और किसी के भी घर होलो।। 
***
-ठा॰ गंगाभक्त सिंह भक्त ggggggggggggggggg

गज़ल़ें

[5]

पाण्डवों की जिंन्दगी संकट में है।
कृष्ण आओ द्रोपदी संकट में है ।।

किससे दिल की बात कहने जाएँ हम।
जो भी मिलता है वही संकट में है।।

आगे आगे चल रहे हैं हादसे।
घर से निकला यात्री संकट में है।।

कौन इस युग में हरेगा दुःख मेरे।
खुद ही इस युग का हरी संकट में है।।

झूठ के सिर पर मुकुट है विक्रमी।
भक्त सच्चा आदमी संकट में है।।
***


[6]

सौ बहाने हैं मुस्कारने के।
लाख अन्दाज़ ग़म छुपाने के।।

मेरी बर्बादियों का रंज न कर।
दिन हैं जश्न-ए-तरब मनाने के।।

बिजलियों की चमक पै शैदा हुए।
जो मुहाफ़िज थे आशियाने के।।

फिर कोई अहदे मोतबर यारो।
हौसले हैं फरेब खाने के।।

पहले तुम मेहरबान होके मिले।
फिर मसायब मिले ज़माने के।।

ये तगाफुल ये खुद फरामोशी।
सब जतन हैं तुझे भुलाने के।।

आज के लोग भी खिलौने हैं ।
चन्द कौड़ी के, चन्द आने के।।
***


[7]

मैं हूँ पहरेदार खुदा की बस्ती का।
यानी फर्ज गुजार खुदा की बस्ती का।।

मुझको आकर सारे भेद बताता है।
एक-एक चोर चकार खुदा की बस्ती का।।

सब कठिनाई हल होती है डंडे से।
डंडा है ग़मखार खुदा की बस्ती का।।

जिस चिड़िया के बच्चे को देखा, निकला।
पक्का रिश्तेदार खुदा की बस्ती का।।

खास किसी इंसां में न देखो भक्त मुझे।
मैं हूँ एक किरदार खुदा की बस्ती का।।
***


[8]

पास आकर भी दूर हैं कितने।
मिलने से मजबूर हैं कितने।।

दारो रसन तक इनकी शोहरत।
दीवाने मशहूर हैं कितने।।

ये कैसा पथराव हुआ है।
आइना खाने चूर हैं कितने।।

उन आँखों का फैज करम है।
पूछो मत मखमूर हैं कितने।।

जीने का दस्तूर नहीं है।
मरने के दस्तूर हैं कितने।।
***


[9]

रैन निराशा आए कौन।
सोए भाग जगाए कौन।।


प्रीति की रीति ही ऐसी है।
इस दिल को समझाए कौन।।


गहरे सागर की तह से।
सच्चे मोती लाए कौन।।


अब किस का विश्वास करें।
झूठी कसमें खाए कौन।।


आने वाला कोई नहीं।
खिड़की द्वार सजाए कौन।।


दीपक राग अलापें भक्त।
लेकिन मेघा गाए कौन।।

***

-ठा॰ गंगाभक्त सिंह भक्त

ggggggggggggggggggggg

कन्नौजी लोकगीत


बादरु गरजइ बिजुरी चमकइ
बैरिनि ब्यारि चलइ पुरबइया
काहू सौतिन नइँ भरमाये
ननदी फेरि तुम्हारे भइया।।



दादुर मोर पपीहा बोलइँ
भेदु हमारे जिय को खोलइँ
बरसा नाहिं, हमारे आँसुन
सइ उफनाने ताल-तलइया।
काहू सौतिन.................।।


सबके छानी-छप्पर द्वारे
छाय रहे उनके घरवारे,
बिन साजन को छाजन छावइ
कौन हमारी धरइ मड़इया ।
काहू सौतिन.................।।


सावन सूखि मई सब काया
देखु भक्त कलियुग की माया,
घर की खीर, खुर–खुरी लागइ
बाहर की भावइ गुड़-लइया।
काहू सौतिन.................।।

देखि-देखि के नैन हमारे
भँवरा आवइँ साँझ–सकारे,
लछिमन रेखा खिंची अवधि की
भागि जाइँ सब छुइ-छुइ ढइया ।
काहू सौतिन.................।।


माना तुम नर हउ हम नारी
बजइ न एक हाथ सइ तारी,
चारि दिना के बाद यहाँ सइ
उड़ि जायेगी सोन चिरइया।
काहू सौतिन.................।।
***


-ठा॰ गंगाभक्त सिंह भक्त

ggggggggggggggggggg

प्रतिक्रिया

काव्यकुंज पर पहुँचें gg